सहशिक्षा कब और क्यों?
सहशिक्षा के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत
हैं जिन्हें निम्न परिभाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है | ब्रिटेनिका विश्वकोश
के अनुसार सहशिक्षा का अर्थ है- “ लड़के तथा लड़कियों को एक ही समय, एक ही स्थान पर,
एक ही अधिकारी द्वारा, एक ही शासन के अधीन, एक ही तरीके से, एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया
जाय |” माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के शब्दों में
“समता के आधार पर एक ही संस्था में लड़के एवं लड़कियों को शिक्षा देना सहशिक्षा
कहलाता है |” इस प्रकार कहा जा सकता है कि सहशिक्षा संस्थाओं में लड़के एवं लड़कियाँ
साथ-साथ पाठ्यचर्या को पूर्ण करते हैं |
सहशिक्षा व्यवस्था भारत के लिये नई नहीं है |
वैदिक काल में लड़के एवं लड़कियाँ गुरू के आश्रम में एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे |
स्वतंत्रता के पश्चात् सहशिक्षा संस्थाओं में द्रुतगति से विकास हुआ है, विशेषकर पब्लिक स्कूल प्रणाली
में | विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का विचार था कि लोगों की राय ऐसी मालूम होती है
कि तेरह या चौदह वर्ष की आयु से लगभग अठारह वर्ष की आयु तक लड़के-लड़कियों के
विद्यालय अलग-अलग हों | आयोग ने स्पष्ट किया कि यह स्पष्ट नहीं होता कि इस विचारधारा
का आधार रीति-रिवाज हैं अथवा अनुभव | आयोग कि अनुशंसाओं के अनुसार, कॉलेज में
प्रवेश की आयु लगभग अठारह वर्ष हो | अतः कॉलेज में सहशिक्षा हो सकती है, जैसा कि
आज तक मेडिकल कॉलेज में होता है | इस स्तर पर अनावश्यक रूप से व्यय की वृद्धि होगी
| लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग कॉलेज बनाने में दोहरे उपकरणों की आवश्यकता होगी,
जो अभी पर्याप्त नहीं हैं और साथ ही साथ इनका भार हमारे सीमित साधनों पर पड़ेगा |
लड़कियों के अलग कालेजों में साधारणतया हीन उपकरण, अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले
अध्यापक और अनुपयुक्त विद्यालय भवन होते हैं | यथासंभव कॉलेज-स्तर पर सहशिक्षा को
बढ़ावा दिया जाए |
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) का विचार है- “ऐसा जान पड़ता है कि सहशिक्षा के
सम्बन्ध में हमारे स्कूलों कि शिक्षा प्रणाली उस समुदाय कि सामाजिक पद्धति से आगे
नहीं बढ़ सकती है जिसमें कि स्कूल स्थापित किये जाने चाहिए | हमारा विचार है कि जिन
स्थानों पर संभव हो वहाँ लड़कियों के पृथक् स्कूल हों क्योंकि ये मिश्रित स्कूलों
की अपेक्षा उनकी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक विशेषताओं के विकास के लिये अधिक अवसर
प्रदान करेंगे और सभी राज्यों को ऐसे स्कूल पर्याप्त संख्या में खोलने चाहिए |
परन्तु ये उन लड़कियों के लिये खोले जाने चाहिए, जिनके अभिभावकों को मिश्रित
स्कूलों की सुविधाओं से लाभ उठाने में आपत्ति हो |” इसी प्रकार शिक्षा आयोग (1964-66) ने सहशिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव देते
हुए कहा कि “कॉलेज के स्तर पर स्थानीय
ऐतिहासिक परम्पराएँ और सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि यह निर्धारित करती हैं कि वहाँ
महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज हों या मिश्रित कॉलेज हों | शिक्षा के स्तर के लिये
सहशिक्षा की समरूपी नीति आवश्यक नहीं है, परिस्थिति प्रत्येक राज्य में भिन्न है
|...........अतएव, इस स्तर पर सहशिक्षा सम्बन्धी नीति का निर्णय प्रत्येक राज्य की
सरकार को करना होगा |” पूर्व स्नातक स्तर पर यदि स्थानीय मांग हो तो महिलाओं के
लिये पृथक् कॉलेज स्थापित किये जा सकते हैं | शिक्षा आयोग के विचार में
स्नातकोत्तर स्तर पर महिलाओं के लिये पृथक् शिक्षा संस्थाओं का कोई औचित्य नहीं है
|
सहशिक्षा के समर्थन में तर्क दिया जाए तो तीन
तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं | प्रथम, आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो लड़कों की
तुलना में कम जनसंख्या होने के कारण अलग स्कूल या कॉलेज खोलना आर्थिक दृष्टि से
हानिकारक है | विशेषकर यह परिस्थिति ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में बहुत ही
गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं | वही भवन, वही साधन-सामग्री, पुस्तकालय तथा
अन्य सुविधाएँ लड़कियों के लिये भी प्रयुक्त की जा सकती हैं | अतः अतिरिक्त वित्तीय
भार और अनावश्यक वृद्धि अपव्ययपूर्ण होगी | द्वितीय दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक है,
जिसमें नारी-शिक्षा की राष्ट्रीय समिति का कथन है –“पारस्परिक सम्पर्क जिज्ञासा की
उस भावना का अंत कर देता है, अजनबीपन के कारण उत्पन्न हो जाती है जो लिंगों के अलगाव
और पृथकता की विशेषता है |” ऐसा समझा जाता है कि केवल साथ रहने से ही प्राकृतिक
भावनाओं की समझ व आत्मविश्वास की भावना आ सकती है | एक विद्वान लेखक का मत
है-“भावी माताओं को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे आँसू भरकर कहें कि वे पुरुषों को
समझती ही नहीं |” ऐसा माना जाता है कि सहशिक्षा के द्वारा यौन प्रवृत्ति को उचित
मार्ग दिया जा सकता है | तृतीय कारक के रूप में भावनात्मक संतुलन को प्रस्तुत किया
जा सकता है | ऐसा समझा जाता है कि पुरूष एक हिंसक पशु है और वह नारी के कारण
सीमाओं को ध्वस्त नहीं कर पाता है | लड़के–लड़कियाँ परस्पर गुण ग्रहण कर सकते हैं-
लड़के, लड़कियों से धैर्य और लड़कियाँ, लड़कों से आत्मनिर्भरता | इस प्रकार लड़के अधिक
सुधरे बनते हैं तथा लड़कियाँ कम लज्जावती और नाजुक बनतीं हैं |
सहशिक्षा के विरोध में
अनेकों विद्वानों ने स्वर मुखरित किया है | विरोध स्वरूप अनेकों तथ्य प्रस्तुत
किये हैं | मनोवैज्ञानिक स्तर पर- प्रथम, सहशिक्षा बालक की भावनाओं के साथ खिलवाड़
करती है | द्वितीय, सहशिक्षा संस्थाओं में कामुकता की भावना का विकास होता है |
सहशिक्षा संस्थाओं में कई प्रकार का यौन उल्लघन होना पाया गया है | नैतिक स्तर पर
नये रोमांस या दुस्साहस की भावना उत्पन्न होने का भय बना रहता है | एक नवयुवक
नैतिकता की उपेक्षा करके पतन की और अग्रसर हो सकता है | इसी प्रकार भावनात्मक
असंतुलन सहशिक्षा संस्थाओं में पाया जाता है- सहशिक्षा संस्थाओं से कई बार नवयुवक
एवं नवयुवतियाँ भावुकता की दृष्टि से दीवालिए होकर निकलते हैं | वे अनेकों प्रकार
के मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं | कई बार सहशिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं
विद्यार्थी लिंग-भावना के आकर्षण से ग्रस्त हो जाते हैं | आत्माभिव्यक्ति के
अवसरों का अभाव पाया जाता है | साझे पाठ्यक्रम में छात्राओं को उनकी आवश्यकताओं के
अनुरूप क्रियाओं का प्रायः अभाव पाया जाता है | सामाजिक स्तर पर भी सहशिक्षा को
आदर्श पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की नैतिक संहिता का उल्लंघन माना जाता है |
विभिन्न मतों एवं तथ्यों के विश्लेषण के उपरांत
कहा जा सकता है कि आरंभिक स्तर पर सहशिक्षा हो | इस स्तर पर सभी का मतैक्य है कि 6-11 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियों में किसी प्रकार के
खतरे एवं दुष्परिणाम का भय नहीं रहता | माध्यमिक स्तर पर सहशिक्षा नहीं होनी
चाहिये- एक प्राचीन कहावत है कि घी एवं अग्नि को साथ-साथ रखा जाए तो प्रज्वलन
अवश्यम्भावी है | यही कारक युवक एवं युवतियों की 11-18 वर्ष
की आयु में हुए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण होते हैं |
विश्वविद्यालय स्तर पर सहशिक्षा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि अधिकांशतः 18 वर्ष की आयु के बाद वे पूर्णतः परिपक्व हो
जाते हैं | इस अवस्था में सहशिक्षा के
सम्बन्ध में कम वाद-विवाद है |
-डॉ. वी. के पाठक
डॉ. सुरत प्यारी पाठक
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